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Showing posts from August, 2020

कुन्ती का त्याग

कुन्ती का त्याग    पाँचों  पाण्डवों  को  कुन्ती  सहित जलाकर मार डालने के उद्देश्य से  दुर्योधन  ने  वारणावत  नामक स्थान में एक चपड़े का महल बनवाया और अन्धे राजा  धृतराष्ट्र  को समझा बुझाकर धृतराष्ट्र के द्वारा युधिष्ठिर को आज्ञा दिलवा दी कि' तुम लोग वहाँ जाकर कुछ दिन रहो और भाँति-भाँति से दान-पुण्य करते रहो । चौकड़ी दुर्योधन ने अपनी चाण्डाल-चौकड़ी से यह निश्चय से किया था कि पाण्डवों के उस चमड़े के महल को किसी दिन रात्रि के समय आग लगा दी जाए। धृतराष्ट को दुर्योधन कि इस बुरी नीयत का पता नहीं था, परंतु किसी तहर  विदुर  को पता लग गया और विदुर ने पाण्डवों के वहाँ से बच निकल ने लिये अन्दर-ही अन्दर एक सुरंग बनवा दी तथा सांकेतिक भाषा में युधिष्ठिर को सारा रहस्य तथा बच निकलने का उपाय समझा दिया। कुन्ती का धर्मप्रेम पाण्डव वहाँ से बच निकले और अपने आप को छुपाकर एक चक्रा नगरी में एक बाह्राण के घर जाकर रहने लगे। उस नगरी में  वक  नामक एक बलवान राक्षस रहता था। उसने ऐसा नियम बना रखा था कि नगर के प्रत्येक घर से रोज बारी-बारी...

अंगुलिमाल

अंगुलिमाल    अंगुलिमाल   बौद्ध कालीन  एक दुर्दांत डाकू था जो  राजा प्रसेनजित  के राज्य  श्रावस्ती  में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम  अंगुलिमाल  पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया। परिचय लगभग ईसा के 500  वर्ष  पूर्व  कोशल  देश की राजधानी श्रावस्ती में एक  ब्राह्मण   पुत्र  के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है।  माता- पिता  ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध  तक्षशिला विश्वविद्यालय  में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा। अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के विरुद्ध कर दिया। आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उँगलियाँ काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे। अहिंसक गुरु की आज्ञा मान ...

नल दमयन्ती

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नल दमयन्ती    अजगर  दमयन्ती को डसतें हुए व  व्याध  भस्म होते हुए। नल दमयन्ती कथा निषध  के राजा वीरसेन के पुत्र का नाम  नल  था। उन्हीं दिनों  विदर्भ  देश पर भीम नामक राजा राज्य करता थां उनके प्रयत्नों के उपरांत दमन नामक  ब्रह्मर्षि  को प्रसन्न कर उसे तीन पुत्र (दम, दान्त तथा दमन) और एक कन्या (दमयंती) की प्राप्ति हुई।  दमयंती  तथा नल अतीव सुंदर थे। एक-दूसरे की प्रशंसा सुनकर बिना देखे ही वे परस्पर प्रेम करने लगे। नल ने एक हंस से अपना प्रेम-संदेश दमयंती तक पहुंचाया, प्रत्युत्तर में दमयंती ने भी नल के प्रति वैसे ही उद्गार भिजवाए। कालांतर में दमयंती के  स्वयंवर  का आयोजन हुआ।  इन्द्र ,  वरुण ,  अग्नि  तथा  यम , ये चारों भी उसे प्राप्त करने के लिए इच्छुक थे। इन्होंने भूलोक में नल को अपना दूत बनाया। नल के यह बताने पर भी कि वह दमयंती से प्रेम करता है, उन्होंने उसे दूत बनने के लिए बाध्य कर दिया। दमयंती ने जब नल का परिचय प्राप्त किया तो स्पष्ट कहा-'आप उन चारों देवताओं को मेरा प्रणाम कहिएगा, किं...

तपती

तपती    तपती   सूर्य देव  की कन्या थी, जो अत्यन्त ही गुणवती तथा सौन्दर्य से परिपूर्ण परम सुन्दरी थी। जब  राजा संवरण शिकार की तलाश में भटक रहे थे, तब उन्होंने तपती को देखा और उसके समक्ष  विवाह  का प्रस्ताव रखा। किंतु तपती ने  पिता  सूर्य देव की आज्ञा के बिना विवाह करने से इंकार कर दिया। बाद में संवरण ने तपस्या से सूर्य देव को प्रसन्न किया और तपती को पत्नी रूप में पा लिया। सूर्य देवता  अपनी परम रूपवती कन्या तपती के लिए कोई वर नहीं खोज पा रहे थे। उन्हीं दिनों ऋक्ष के पुत्र  राजा संवरण  भी अपनी प्रजा परायणता और वीरता से ख्याति प्राप्त कर चुके थे। वे सूर्य की उपासना करते थे और उनके सच्चे  भक्त थे। एक दिन जंगल में शिकार करते समय संवरण का घोड़ा मारा गया, अत: वे पैदल ही इधर-उधर भटक रहे थे। तभी उन्हें तपती दिखाई पड़ी। तपती के सौन्दर्य पर संवरण इतने आसक्त हो गये कि मूर्च्छा ने उन्हें घेर लिया। संवरण ने तपती के समक्ष  विवाह  का प्रस्ताव रखा, किंतु  पिता  की आज्ञा लिए बिना तपती उनके प्रेम-निवेदन का उत्तर देने को तै...

कबंध

कबंध    सीता  की खोज में लगे  राम- लक्ष्मण  को वन में बहुत विचित्र सी आवाज़ सुनाई दी। अचानक उन्होंने एक विचित्र  दैत्य  देखा, जिसके मस्तक और गला नहीं था तथा उसके पेट में मुख था। उसकी केवल एक ही आँख थी। शरीर पर पीले रोयें थे। उसकी एक योजन लम्बी बाहें थीं। उस विचित्र दैत्य का नाम कबंध था। कबंध ने राम और लक्ष्मण को एक साथ पकड़ लिया। लक्ष्मण ने घबराकर धैर्यशाली राम से कहा, "मैं इसकी पकड़ में बहुत विवश हो गया हूँ। आप मुझे बलिस्वरूप देकर स्वयं निकल भागिए।" पर राम अविचलित ही रहे। दैत्य कबंध ने कहा कि वह भूखा है, अत: दोनों का ही भक्षण करेगा। राम और लक्ष्मण ने कबंध की दोनों भुजाएँ काट डालीं। कबंध ने भूमि पर गिरकर दोनों वीरों का परिचय प्राप्त किया, फिर प्रसन्न होकर कबंध बोला, "यह मेरा भाग्य है कि आपने मुझे बंधन मुक्त कर दिया। कबंध ने अपने बारे में परिचय दिया और कहा मैं बहुत पराक्रमी तथा सुंदर था। राक्षसों जैसी भीषण आकृति बनाकर मैं  ऋषियों  को डराया करता था। मैं  दनु  का पुत्र कबंध हूँ। एक बार स्थूलशिरा नामक मुनि के  फल  चुराकर मैंने...

उदयन

उदयन    उदयन   कौशांबी  नगर के राजा  परंतप  का पुत्र था। कौशांबी,  इलाहाबाद  में नगर से प्राय: 35 मील की दूरी पर पश्चिम में बसी थी, जहाँ आज भी  यमुना नदी  के किनारे कोसम गाँव में उसके खंडहर उपस्थित हैं । जन्म राजा परंतप की गर्भिणी राजमहिषी उनके पास बैठी धूप सेंक रही थी। उसने  लाल रंग  का कम्बल ओढ़ा हुआ था। एक  हाथी  की सूरत के पक्षी ने मांस का टुकड़ा समझकर रानी को उठाया और  आकाश  में उड़ता हुआ  पर्वत  की जड़ मे लगे हुए वृक्ष पर ले गया। इसी स्थान पर रानी ने कौशांबी के अगले राजा उदयन को जन्म दिया। जब पक्षी ने परंतप की राजमहिषी को उठा लिया, तो वह चुप रहीं, कि कहीं वह पक्षी उन्हें छोड़ न दे। पक्षी द्वारा एक पेड़ की जड़ पर रख दिये जाने के बाद उन्होंने पेड़ का सहारा पाकर ताली बजाकर शोर मचाया। उसका शोर सुनकर पक्षी उड़ गया तथा एक तापस वहाँ पर जा पहुँचा। उसने गर्भवती महिषी को अपने आवास में स्थान दिया। पुत्र जन्म के उपरान्त भी वह वर्षों तक तापस के पास रही। रानी के पुत्र का नाम उदयन रखा गया था। टीका टिप्पणी औ...

नृग

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नृग    राजा नृग का  गिरगिट  योनि से उद्धार नृग  प्राचीन काल के एक ख्याति प्राप्त राजा थे, जो  इक्ष्वाकु के पुत्र थे। राजा नृग अपनी दानशीलता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। एक बार भूल से राजा नृग ने पहले दान की हुई  गाय  को फिर से दूसरे  ब्राह्मण  को दान दे दिया। यद्यपि इसका ज्ञान राजा नृग को दान देते समय नहीं था, किंतु इसके फलस्वरूप ब्राह्मणों के शाप के कारण राजा नृग को गिरगिट होकर एक सहस्र  वर्ष  तक कुएँ में रहना पड़ा। अंत में  कृष्ण   अवतार  के समय नृग का उद्धार हुआ। [1] कथा एक दिन  लक्ष्मण  ने  श्रीराम  से कहा, "महाराज! आप राजकाज में इतने व्यस्त रहते हैं कि अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखते"। [2]  यह सुनकर रामचन्द्रजी बोले, "लक्ष्मण! राजा को राजकाज में पूर्णतया लीन रहना ही चाहिये। तनिक सी असावधानी हो जाने पर उसे राजा नृग की भाँति भयंकर यातना भोगनी पड़ती है।" लक्ष्मण के जिज्ञासा करने पर उन्होंने राजा नृग की कथा सुनाते हुये कहा- "पहले इस  पृथ्वी  पर महायशस्वी राजा नृग राज्य करते थे...

सहस्रकिरण

सहस्रकिरण    एक बार राजा सहस्रकिरण अपनी रानियों के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। उसने जलयंत्र लगाकर पानी रोका हुआ था। उसी नदी के तट पर  रावण  जिनेश्वर देव की प्रतिमाओं की स्वर्ण सिंहासन पर प्रतिष्ठा करके पूजा कर रहा था। क्रीड़ा के उपरान्त सहस्रकिरण ने यंत्रों से रोका हुआ जल छोड़ दिया तो किनारे पर बाड़-सी आ गई, जिससे रावण की पूजा में व्यवधान पड़ा। अत: उसने क्रुद्ध होकर राजा से युद्ध किया और उसे पाशबद्ध कर लिया। उसी समय सहस्रकिरण के पिता शतवाहु वहाँ पहुँचे। उन्होंने राज्य पुत्र को सौंपकर स्वयं  प्रव्रज्या  ले ली। उनके अनुरोध पर रावण ने सहस्रकिरण को मुक्त कर दिया। वह भी अपना राज्य अपने पुत्र को सौंपकर स्वयं दीक्षा लेकर पिता के साथ चला गया। [1] टीका टिप्पणी और संदर्भ ↑   पउम चरित, 10|34-88|

ध्रुव

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ध्रुव    ध्रुव जी मन्दिर,  मधुवन Dhruva Ji Temple, Madhuvan उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो भार्यायें थीं । राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुये । यद्यपि सुनीति बड़ी रानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद का प्रेम सुरुचि के प्रति अधिक था । एक बार उत्तानपाद ध्रुव को गोद में लिये बैठे थे कि तभी छोटी रानी सुरुचि वहाँ आई । अपने सौत के पुत्र ध्रुव को राजा के गोद में बैठे देख कर वह ईर्ष्या से जल उठी । झपटकर उसने ध्रुव को राजा के गोद से खींच लिया और अपने पुत्र उत्तम को उनकी गोद में बैठाते हुये कहा- "रे मूर्ख! राजा की गोद में वह बालक बैठ सकता है जो मेरी कोख से उत्पन्न हुआ है । तू मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुआ है इस कारण से तुझे इनकी गोद में तथा राजसिंहासन पर बैठने का अधिकार नहीं है । यदि तेरी इच्छा राज सिंहासन प्राप्त करने की है तो भगवान नारायण का भजन कर । उनकी कृपा से जब तू मेरे गर्भ से उत्पन्न होगा तभी राजपद को प्राप्त कर सकेगा ।"

त्रिहारिणी

त्रिहारिणी    इंद्रसावर्णी कट्टर  वैष्णव  थे, किन्तु उन्हीं के पुत्र का नाम  वृषध्वज  था, जो कि कट्टर  शैव  था।  शिव  उसे अपने पुत्रों से भी अधिक प्यार करते थे। उसके  विष्णुभक्त  न होने के कारण रुष्ट होकर  सूर्य  ने आजीवन भ्रष्टश्री होने का  शाप दिया। शिव जी का क्रोध शिव ने जाना तो त्रिशूल लेकर सूर्य के पीछे गए। सूर्य  कश्यप  को साथ लेकर  नारायण  की शरण में बैकुंठधाम पहुँचे। नारायण ने उसे निर्भय होकर अपने घर जाने को कहा, क्योंकि शिव भी उनके भक्तों में से हैं। उसी समय शिव ने वहाँ पहुँचकर नारायण को प्रणाम किया तथा सूर्य ने चंद्रशेखर को प्रणाम किया। नारायण ने शिव के क्रोध का कारण जानकर कहा, " बैकुंठ में आये आधी घड़ी होने पर भी मृत्युलोक के इक्कीस युग बीत चुके हैं। वृषध्वज कालवश लोकांतर प्राप्त कर चुका है। उसके दो पुत्र रथध्वज और धर्मध्वज भी हतश्री हैं तथा शिवभक्त हैं। वे  लक्ष्मी  की उपासना कर रहे हैं। लक्ष्मी आंशिक रूप से उनकी पत्नियों में अवतरित होंगी, तब वे श्रीयुक्त होंगे। " यह सुनक...

त्रिदेवपरीक्षा

त्रिदेवपरीक्षा    एक बार  देवताओं  के मन में संशय उठा कि  ब्रह्मा ,  विष्णु ,  महेश  में से कौन सबसे महान् है। उसकी परीक्षा के लिए  भृगु  को नियुक्त किया गया। भृगु सबसे पहले ब्रह्मा के पास पहुँचे तथा उन्हें अभिवादन इत्यादि किये बिना ही उनकी सभा में चले गये। ब्रह्मा ने अपना पुत्र जानकर क्रोधवेश दबा लिया। भृगु शिव के पास गये। शिव ने हाथ बढ़ाकर उनका आलिंगन करना चाहा, किन्तु वे उन्हें उलटी-सीधी बातें कहने लगे। शिव त्रिशूल उठाकर उनके पीछे भागे।  सती ने उन्हें रोका तथा शान्त किया। तदन्तर भृगु विष्णु के पास गये। विष्णु  लक्ष्मी  की गोद में सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगु ने उनकी छाती पर अपने पैर से प्रहार किया। विष्णु ने तुरन्त उठकर उनसे क्षमा-याचना की कि उनके आगमन का ज्ञान न होने के कारण वे सुचारु सेवा नहीं कर पाये। देवताओं ने माना कि विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ हैं।

त्र्यम्बकेश्वर मंदिर

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त्र्यम्बकेश्वर मंदिर    त्र्यंबकेश्वर मंदिर,  नासिक Trimbakeshwar Temple, Nasik त्र्यम्बकेश्वर मंदिर  ( अंग्रेज़ी : Trimbakeshwar Temple )  महाराष्ट्र  प्रान्त के  नासिक  जनपद में नासिक शहर से तीस किलोमीटर पश्चिम में अवस्थित है। इसे त्रयम्बक ज्योतिर्लिंग, त्र्यम्बकेश्वर शिव मन्दिर भी कहते है। यहाँ समीप में ही ब्रह्मगिरि नामक पर्वत से  गोदावरी नदी निकलती है। जिस प्रकार उत्तर  भारत  में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदी  गंगा  का विशेष आध्यात्मिक महत्त्व है, उसी प्रकार दक्षिण में प्रवाहित होने वाली इस पवित्र नदी गोदावरी का विशेष महत्त्व है। जहाँ उत्तरभारत की गंगा को ‘भागीरथी’ कहा जाता हैं, वहीं इस गोदावरी नदी को ‘गौतमी गंगा’ कहकर पुकारा जाता है। भागीरथी राजा  भगीरथ  की तपस्या का परिणाम है, तो गोदावरी ऋषि  गौतम  की तपस्या का साक्षात फल है। महाकुम्भ का आयोजन देश में लगने वाले विश्व के प्रसिद्ध चार महाकुम्भ मेलों में से एक महाकुम्भ का मेला यहीं लगता है। यहाँ प्रत्येक बारहवें वर्ष जब सिंह राशि पर बृहस्पति का पदार...

त्र्यरुण

त्र्यरुण    एक बार राजा त्र्यरुण को एक सारथी की आवश्यकता थी। उसके  पुरोहित   वृषजान  ने घोड़ों की लगाम को थाम लिया। पुरोहित को सारथी के रूप में पाकर राजा  रथारूढ़  हुए। मार्ग में एक बालक आ गया। अथक प्रयत्न से भी वृषजान घोड़ों को रोक नहीं पाया तथा बालक रथ के पहिये से कुचलकर मारा गया। जनता इकट्ठी हो गई तथा वहाँ पर हाहाकार मच गया। पुरोहित ने  अथर्वन  मंत्रों तथा 'वार्शसाम' स्तोत्र के द्वारा स्तवन किया। बालक पुन: जीवित हो उठा। विवाद शुरू हो चुका था, कि अपराधी कौन है-सारथी या फिर रथी? सबने निश्चय किया कि  इक्ष्वाकु  इसका निर्णय करेंगे। इक्ष्वाकु की व्यवस्था के अनुसार वृषजान को स्वदेश त्यागना पड़ा। प्रजा के सम्मुख विकट संकट उत्पन्न हो गया। अग्नि तापरहित हो गई। भोजन तैयार करना, दूध-पानी गरम करना असम्भव हो गया। प्रजा ने एकत्र होकर कहा कि  पुरोहित  को दंड देना अनुचित है। इक्ष्वाकु ने अपने वंशज (त्र्यरुण) के साथ पक्षपात करके पुरोहित को विदेश गमन की व्यवस्था दी है, इसी से अग्नि का ताप नष्ट हो गया। राजा पुरोहित के पास गये। उनसे क्षमा-...

भरथरी

भरथरी    भरथरी   भारतीय इतिहास  के प्रसिद्ध राजाओं में से एक थे।  भारत  की लोककथाओं में राजा भरथरी बहुत प्रसिद्ध हैं। कभी-कभी भरथरी और  संस्कृत  के महान्  कवि   भर्तृहरि  को एक ही व्यक्ति माना जाता है। राजा भरथरी की लोकगाथा  सारंगी  बजाकर भिक्षा की याचना करने वाले जोगियों द्वारा बड़े प्रेम से गयी जाती है। ये जोगी इस गाथा को गाकर किसी का पूरा नहीं लिखाते। उनका विश्वास है कि इस सम्पूर्ण गाथा को लिखने तथा लिखाने वाले दोनों व्यक्तियों का सर्वनाश हो जाता है। संक्षिप्त कथा संस्कृत  के सुप्रसिद्ध कवि राजा भर्तृहरि को कौन नहीं जानता, जिन्होंने श्रृंगार, नीति तथा वैराग्य-शतकों की रचना कर अमरता प्राप्त की। लोकगीतों में वर्णित भरथरी तथा भर्तृहरि, दोनों एक ही व्यक्ति हैं, यह कहना कठिन है; परंतु दोनों के कथानकों में बहुत कुछ साम्य है। भरथरी की  कथा संक्षेप में इस प्रकार है- उज्जैन  में राजा इन्द्रसेन राज्य करते थे, जिनके लड़के का नाम चन्द्रसेन था। भरथरी इन्हीं के पुत्र थे। इनकी  माता  का नाम रूपदेई और स्त्री का...

वत्सनाभ

वत्सनाभ    वत्सनाभ नामक महर्षि ने कठोर तपस्या का व्रत लिया। वे तपस्यारत थे। उनके सारे शरीर पर दीमक ने घर बना लिया। बांबी-रूपी वत्सनाभ तब भी तपस्या में लगे रहे।  इन्द्र  ने भयानक  वर्षा  की, दीमक का घर बह गया तथा वर्षा का प्रहार ऋषि के शरीर को कष्ट पहुँचाने लगा। यह देखकर धर्म ने एक विशाल भैंसे का रूप धारण किया तथा तपस्या करते हुए ऋषि को अपने चारों पैरों के बीच में करके खड़े हो गए। तपस्या की समाप्ति के उपरान्त वत्सनाभ ने  जल-प्लावित   पृथ्वी  को देखा, फिर भैंसे को देखकर सोचा कि, निश्चय ही उसने ऋषि की वर्षा से रक्षा की होगी। तदनन्तर वे मन ही मन यह सोचकर कि पशु योनि में भी भैंसा धर्मवत्सल है तथा ऋषि स्वयं कितने कृतध्न हैं कि न तो माता-पिता का भरण-पोषण किया और न गुरु दक्षिणा ही दी। यह बात उनके मन में इतनी जम गई कि आत्महनन के अतिरिक्त कोई मार्ग उन्हें नहीं सूझा। वे अनासक्त चित्त से मरुपर्वत के शिखर पर प्राण त्याग के लिए चले गये। धर्म ने उनका हाथ पकड़ लिया तथा कहा कि "तुम्हारी आयु बहुत लम्बी है। प्रत्येक धर्मात्मा अपने कृत्यों पर ऐसे ही विचार तथा पश...

धृतराष्ट्र का वनगमन

धृतराष्ट्र का वनगमन    पांडवों  ने विजयी होने के उपरांत  धृतराष्ट्र  तथा  गांधारी  की पूर्ण तन्मयता से सेवा की। पांडवों में से भीमसेन ऐसे थे जो सबकी चोरी से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम करते रहते थे, कभी-कभी सेवकों से भी धृष्टतापूर्ण मंत्रणाएँ करवाते थे। धृतराष्ट्र धीरे-धीरे दो दिन या चार दिन में एक बार भोजन करने लगे। पंद्रह वर्ष बाद उन्हें इतना वैराग्य हुआ कि वे वन जाने के लिए छटपटाने लगे। वे और गांधारी  युधिष्ठिर  तथा  व्यास मुनि  से आज्ञा लेकर वन में चले गये। चलते समय जयद्रथ तथा पुत्रों का श्राद्ध करने के लिए वे धन लेना चाहते थे।  भीम  देना नहीं चाहता था तथापि युधिष्ठिर आदि भीमेतर पांडवों ने उन्हें दान-दक्षिणा के लिए यथेच्छ धन ले लेने के लिए कहा। धृतराष्ट्र और गांधारी ने वन के लिए प्रस्थान किया तो  कुंती  भी उनके साथ हो ली। पांडवों के कितनी ही प्रकार के अनुरोध को टालकर उसने गांधारी का हाथ पकड़ लिया। कुंती ने पांडवों से कहा कि वह अपने पति के युग में पर्याप्त भोग कर चुकी है, वन में जाकर तप करना ही उसके लिए...

वसु (निषाद)

वसु (निषाद)    वसु  नामक एक निषाद का उल्लेख  पुराणों  में मिलता है, जो श्यामाकवन (साँवा के जंगल) की रक्षा करता था। वह साँवा के  चावलों  का भात बनाकर, उसमें  मधु  मिलाकर श्रीदेवी तथा भूदेवी सहित  विष्णु  को भोग लगाता था और प्रसाद पाता था। चित्रवती नाम की पत्नी से इसका 'वीर' नामक पुत्र था, जिसके कारण निषाद वसु को भगवान विष्णु का दर्शन हुआ था। [1] [2 ] भगवान का भक्त पूर्व काल में वेंकटाचल ( दक्षिण भारत ) पर एक  निषाद रहता था। उसका नाम था- 'वसु'। वह भगवान का बड़ा  भक्त  था। प्रतिदिन स्वामिपुष्करिणी में  स्नान  करके श्रीनिवास की  पूजा  करता और श्यामाक (सावाँ) के भात में मधु मिलाकर वही भूदेवियों सहित उन्हें भोग के लिये निवेदन करता था। भगवान के उस प्रसाद को ही वह पत्नी के साथ स्वयं पाता था। यही उसका नित्य का नियम था। भगवान श्रीनिवास उसे प्रत्यक्ष दर्शन देते और उससे वार्तालाप करते थे। उसके और भगवान के बीच में योगमाया का पर्दा नहीं रह गया था। उस  पर्वत  के एक भाग में सावाँ का जंगल था। वसु उसकी सदा...

ऋषभदेव का त्याग

ऋषभदेव का त्याग    राजा  प्रियवत  के पौत्र  नाभि  की कोई संतान नहीं थी। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए बड़ा जप-तप किया और बड़ी दान-दक्षिणा भी दी, किंतु फिर भी उन्हें संतान प्राप्ति नहीं हुई। इस कारण वे बड़े दुखी और निराश हुए। नाभि ने बड़े-बड़े ॠषियों और मुनियों से परामर्श किया। वे चाहते थे कि दिव्य पुरुष की भांति ही उनके घर में पुत्र उत्पन्न हो। ॠषियों ने उन्हें यज्ञ द्वारा दिव्य पुरुष के आह्वान की सलाह दी। नाभि ने यज्ञ का आयोजन किया। बड़े-बड़े ॠषि और मुनि एकत्रित हुए। यज्ञ होने लगा। मन्त्रों और आहुतियों के साथ दिव्य पुरुष का आह्वान किया जाने लगा। दिव्य पुरुष प्रसन्न होकर प्रकट हुए। ॠषियों ने उनकी प्रार्थना करते हुए कहा,'प्रभो! हम सब आपके दास हैं, आप हमारे स्वामी हैं। हम पर कृपा कीजिए। हमारी रक्षा कीजिए और हमारी मनोभिलाषाओं को पूर्ण करके हमारे जीवन को सार्थक बनाइए। दीनबंधु, आप जगत् में जो कुछ होता है, आप ही की इच्छा से होता है। हमारे राजा नाभि आपके ही समान पुत्र चाहते हैं। उन पर दया कीजिए, उनकी मनोकामना पूर्ण कीजिए।' ॠषियों की प्रार्थना से दिव्य पुरुष प्रसन...

सावित्री

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सावित्री    सावित्री सावित्री   यमराज  से वरदान माँगते हुए। सावित्री तथा सत्यवान की कथा धर्मराज  युधिष्ठिर  ने  मार्कण्डेय ऋषि  से कहा, "हे ऋषिश्रेष्ठ! मुझे अपने कष्टों की चिन्ता नहीं है, किन्तु इस  द्रौपदी  के कष्ट को देखकर अत्यन्त क्लेश होता है। जितना कष्ट यह उठा रही है, क्या और किसी अन्य पतिव्रता नारी ने कभी उठाया है?" तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, "हे धर्मराज! तुम्हारे इस प्रश्नै के उत्तर में मैं तुम्हें पतिव्रता सावित्री की  कथा  सुनाता हूँ।। मद्र देश के राजा का नाम अश्वपति था। उनके कोई भी सन्तान न थी इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये  सावित्री देवी  की बड़ी उपासना की जिसके फलस्वरूप उनकी एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई। सावित्री देवी की कृपा से उत्पन्न उस कन्या का नाम अश्वपति ने सावित्री ही रख दिया। "सावित्री की उम्र, रूप, गुण और लावण्य शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगी और वह युवावस्था को प्राप्त हो गई। अब उसके पिता राजा अश्वेपति को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा ...

सहस्त्रबाहु और परशुराम

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सहस्त्रबाहु और परशुराम    सहस्त्रबाहु सहस्त्रबाहु  का मूल नाम  कार्तवीर्य अर्जुन  था। वह बड़ा प्रतापी तथा शूरवीर था। उसने अपने गुरु  दत्तात्रेय  को प्रसन्न करके वरदान के रूप में उनसे हज़ार भुजाएँ प्राप्त की थीं। हज़ार भुजाएँ होने के कारण ही कार्तवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु के नाम से भी जाना गया था। उसने सभी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। सहस्त्रबाहु ने  परशुराम  के  पिता   जमदग्नि  से उनकी  कामधेनु   गाय  माँगी थी। जमदग्नि के इन्कार करने पर उसके सैनिक बलपूर्वक कामधेनु को अपने साथ ले गये। बाद में परशुराम को सारी घटना विदित हुई, तो उन्होंने अकेले ही सहस्त्रबाहु की समस्त सेना का नाश कर दिया और साथ ही सहस्त्रबाहु का भी वध कर दिया। रावण से सामना सहस्रबाहु को अपने बल और वैभव का बड़ा गर्व था। एक बार वह गले में  वैजयंतीमाला  पहने हुए  नर्मदा नदी  में स्नान कर रहा था। उसने कौतुक ही कौतुक में अपनी भुजाओं में फैलाकर नदी के प्रवाह को रोक लिया। लंकाधिपति  रावण को, जो उसी समय नर्मदा में स्नान कर रहा था, सहस्त्...