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Showing posts from September, 2020

देवी भगवती रजस्वला होते, तीन दिवस योनीतून वाहतं रक्त

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देवी भगवती रजस्वला होते, तीन दिवस योनीतून वाहतं रक्त देवीचे एकूण 51 शक्तिपीठे असून त्यातून एक देवी कामाख्‍या शक्तिपीठ आसामच्या गुवाहाटीहून 8 किलोमीटर अंतरावर असलेल्या निलांचल पर्वतावर आहे. या मंदिराचे तांत्रिक शास्त्रात विशेष महत्त्व आहे. येथे भगवतीची महामुद्रा योनी-कुंड यात स्थित आहे.   पौराणिक आख्यायिकेनुसार अम्बूवाची पर्वाच्या दरम्यान देवी भगवती रजस्वला होते आणि तिच्या गर्भ गृहातील योनीतून सलग तीन दिवस जल प्रवाहाच्या जागी रक्त वाहते. हे रहस्यमयी विलक्षण तथ्य आहे. कामाख्या तंत्रानुसार श्लोकामध्ये याचे विवरण असे आहे- योनी मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥    विशेष म्हणजे अम्बूवाची योग पर्व दरम्यान देवी भगवतीच्या गर्भगृहाची दारे आपोआप बंद होतात. या दरम्यान देवीचे दर्शन निषिद्ध मानले गेले आहे. या पर्वात भगवतीच्या रजस्वला काळात गर्भगृहात स्थित महामुद्रेवर पांढरे कपडे अंथरले जातात. तीन दिवसाने पांढरा कपडा देवीच्या रजने रक्तवर्ण होतात. या वस्त्राचे तुकडे भक्तांना प्रसाद म्हणून देतात. तीन दिवसानंतर रजस्वला समाप्तीवर विशेष पूजा, अर्चना केली ज...

दंतकथा आणि त्याचा समाज जीवनावर परिणाम

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दंतकथा आणि त्याचा समाज जीवनावर परिणाम आपल्या भारतात साधुसंत आणि महात्म्यांच्या बाबतीत अनेक दंतकथा तयार करण्यात आलेल्या आहेत. त्याचे कारण असे आहे की खालच्या जातीतील लोकांना काही अलौकिक गुण असू शकतात या गोष्टीवर उच्चवर्णीयांचा अजिबात विश्वास नाही. शूद्रातिशूद्रांना प्रतिभा नसते, बौद्धिक कुवत नसते असा त्यांचा दुराग्रह आहे. ब्राह्मणांव्यतिरिक्त कुठल्याही खालच्या जातीमध्ये अलौकिक शक्ती असत नाही, असा त्यांचा भ्रम आहे. म्हणून तेच अशा कथा निर्माण करून लोकात मुद्दामून प्रस्तुत करतात. आणि त्याला सर्वसामान्य माणूस बळी पडतो. शूद्रातिशूद्र जातीमधील प्रतिभावान आणि संत महात्म्यांच्या बाबतीत अशा बिनबुडाच्या कथा लोकांमध्ये प्रस्तुत करण्याचे कट-कारस्थान काही विशिष्ट जातीतील लोकांनी केलेले आहे. स्वतःचे श्रेष्ठत्व अभधित राहण्यासाठी खालच्या जातीमधील प्रतिभाशक्ती असलेल्या संतास ब्राम्हणाने अनुकंपा केल्याने त्यास दैवीशक्ती प्राप्त झाल्याचे अनेक ठिकाणी दाखले दिले गेले आहेत. त्यामुळे एखाद्या व्यक्तीच्या अंगात असे गुण असतील तर तो दैवी शक्तीचा प्रभाव आहे असे समजून काही बिनबुडाच्या कथा तयार करतात. अशा कट-कारस्थान...

कौस्तुभ मणि

कौस्तुभ मणि    कौस्तुभ मणि  को भगवान  विष्णु  धारण करते हैं। माना जाता है कि यह मणि  देवताओं  और  असुरों  द्वारा किये गए  समुद्र मंथन  के समय प्राप्त चौदह मूल्यवान वस्तुओं में से एक थी। यह बहुत ही कांतिमान थी और जहाँ भी यह मणि होती है, वहाँ किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं होती। रघुवंश में उल्लेख महाकवि कालिदास  ने ' रघुवंश ' [1]  में कहा है कि- त्रातेन तार्क्ष्यात् किल कालियेन मणिं विसृष्टं यमुनौकसा यः । वक्षःस्थल-व्यापिरुचं दधानः सकौस्तुभं ह्रेपयतीव कृष्णम् ।। उपर्युक्त  श्लोक  में कालिदास के समय में प्रचलित पुराकथा का निर्देश है। यहाँ ऐसा कहा गया है कि  कालिय नाग  को  श्रीकृष्ण  ने  गरुड़  के त्रास से मुक्त किया था। इस समय कालिय नाग ने अपने मस्तक से उतार कर श्रीकृष्ण को कौस्तुभ मणि दिया था। परन्तु कालिदास के समय में प्रचलित उपर्युक्त पुराकथा पुराणकार व्यास के हाथ में सर्वथा बदल दी गई।  श्रीमद्भागवत  में तो कहा गया है कि कौस्तुभ मणि की प्राप्ति तो समुद्र मंथन के समय हुई ...

उपचरि

उपचरि    उपचरि  वसुश्री नारायण के परम भक्त थे। उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग कर घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी तो  इंद्र घबरा गये कि कहीं इंद्रपद के लिए उन्होंने तपस्या न की हो। इंद्र ने समझा-बुझाकर उन्हें तपस्या से निवृत्त कर दिया तथा उन्हें स्फटिक से बना एक विमान उपहार स्वरूप प्रदान किया, जो कि आकाश में ही रहता था। उस विमान में रहने के कारण राजा वसु 'उपचरि' कहलाए। इंद्र ने उन्हें त्रिलोकदर्शी होने का वरदान दिया तथा सदैव विजयी रहने के लिए वैजंतीमाला और सुरक्षा के लिए एक बेंत भेंटस्वरूप दिया। एक बार कोलाहल पर्वत ने काम के वशीभूत होकर शुक्तिनदी को रोक लिया। राजा उपचरि ने अपने पाँव के प्रहार से उसके दो खंड कर दिये तथा नदी पूर्वगति से बहने लगी। पर्वत के समागम से शुक्तिनदी की युगल संतान हुई, जिन्हें उसने कृतज्ञ भाव से राजा को समर्पित कर दिया। राजा ने उसके पुत्र को सेनापति नियुक्त कर दिया तथा गिरिका नामक कन्या को पत्नी के रूप में ग्रहण किया। एक दिन वे पितरों की आज्ञा का पालन करने के निमित्त शिकार खेलने गये। वहाँ के मनोरम वातावरण में कामोन्मत्त राजा उपचरि का वीर्यपात हो ...

कृत्तिवासा

कृत्तिवासा    कृत्तिवासा,  शिव  का पर्याय है। अर्थात् कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र में धारण करने वाले।  स्कन्दपुराण  के [1]  में गजासुरवध तथा शिव के कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है। कथा " महिषासुर  का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से  उन्मत्त होकर सभी  देवताओं  को उत्पीड़न कर रहा था। यह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था, वहाँ पर तुरन्त ही सभी दिशाओं में भय छा जाता था।  ब्रह्मा  से वर पाकर वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभिभूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस दैत्यपुगंव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने छत्र के समान टँगा हुआ जानकर यह शिव की शरण में गया और बोला-हे त्रिशूलपाणि! हे देवताओं के स्वामी! हे पुरान्तक! आपके हाथों से मेरा वध श्रेयस्कर है। कुछ मैं कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें। हे मृत्युजंय! मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और अनुगृहीत हू...

श्रवण कुमार

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श्रवण कुमार    श्रवण कुमार अपने माता-पिता के साथ (अभिकल्पित चित्र) श्रवण कुमार  एक पौराणिक चरित्र है। ऐसा माना जाता है कि श्रवण कुमार के माता-पिता अंधे थे। श्रवण कुमार अत्यंत श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करते थे। एक बार उनके माता-पिता की इच्छा तीर्थयात्रा करने की हुई। श्रवण कुमार ने  कांवर  बनाई और उसमें दोनों को बैठाकर कंधे पर उठाए हुए यात्रा करने लगे। एक दिन वे  अयोध्या  के समीप वन में पहुंचे। वहां रात्रि के समय माता-पिता को प्यास लगी। श्रवण कुमार पानी के लिए अपना तुंबा लेकर  सरयू  तट पर गए। उसी समय महाराज  दशरथ  भी वहां आखेट के लिए आए हुए थे। श्रवण कुमार ने जब पानी में अपना तुंबा डुबोया, दशरथ ने समझा कोई हिरन जल पी रहा है। उन्होंने शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। बाण श्रवण कुमार को लगा। दशरथ को दुखी देख मरते हुए श्रवण कुमार ने कहा- मुझे अपनी मृत्यु का दु:ख नहीं, किंतु माता-पिता के लिए बहुत दु:ख है। आप उन्हें जाकर मेरी मृत्यु का समाचार सुना दें और जल पिलाकर उनकी प्यास शांत करें। दशरथ ने देखा कि श्रवण दिव्य रूप धारण कर विमान में बैठ स्वर्ग को ज...

मणिमान

मणिमान    शंकराचार्य  एवं  मध्वाचार्य  के शिष्यों में परस्पर घोर प्रतिस्पर्धा रहती थी। मध्व अपने को  वायु देव  का अवतार कहते थे तथा शंकर को  महाभारत  में उदधृत एक अस्पष्ट व्यक्त  मणिमान  का  अवतार  मानते थे। मध्व ने महाभारत की व्याख्या में शंकर की उत्पत्ति सम्बन्धी धारणा का उल्लेख किया है। मध्व के पश्चात् उनके एक प्रशिष्य पंडित नारायण ने मणिमंजरी एवं मध्वविजय नामक  संस्कृत  ग्रन्थों में मध्व वर्णित दोनों अवतार (मध्व के वायु अवतार एवं शंकर के मणिमान अवतार) के सिद्धान्त की स्थापना गम्भीरता से की है। उपर्युक्त माध्व ग्रन्थों के विरोध में ही 'शंकरदिग्विजय' नामक ग्रन्थ की रचना हुई जान पड़ती है।

मदालसा

मदालसा    मदालसा  एक पौराणिक चरित्र है जो ऋतुध्वज की पटरानी थी और विश्वावसु गन्धर्वराज की पुत्री थी। शत्रुजित नामक एक राजा था। उसके यज्ञों में सोमपान करके  इंद्र  उस पर विशेष प्रसन्न हो गये। शत्रुजित को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम ऋतुध्वज था। उस राजकुमार के विभिन्न वर्णों से संबंधित अनेक मित्र थे। सभी इकटठे खेलते थे। मित्रों के अश्वतर नागराज के दो पुत्र भी थे जो प्रतिदिन मनोविनोद क्रीड़ा इत्यादि के निमित ऋतुध्वज के पास भूतल पर आते थे। राजकुमार के बिना रसातल में वे रात भर अत्यंत व्याकुल रहते। एक दिन नागराज ने उनसे पूछा कि वे दिन-भर कहाँ रहते हैं? उनके बताने पर उनकी प्रगाढ़ मित्रता से अवगत होकर नागराज ने फिर पूछा कि उनके मित्र के लिए वे क्या कर सकते हैं। दोनों पुत्रों ने कहा ऋतुध्वज अत्यंत संपन्न है किंतु उसका एक असाध्य कार्य अटका हुआ है। कथा एक बार राजा शत्रुजित के पास गालब मुनि गये थे। उन्होंने राजा से कहा था, कि एक दैत्य उनकी तपस्या में विघ्न प्रस्तुत करता है। उसको मारने के साधनस्वरूप यह कुवलय नामक घोड़ा  आकाश  से नीचे उतरा और आकाशवाणी ...

हलाहल विष

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हलाहल विष    भगवान शिव विषपान करते हुए हलाहल विष   देवताओं  और  असुरों  द्वारा मिलकर किये गए  समुद्र मंथन  के समय निकला था। मंथन के फलस्वरूप जो चौदह मूल्यवान वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं, उनमें से हलाहल विष सबसे पहले निकला था। जब देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन आरम्भ किया, तब भगवान  विष्णु  ने कच्छप बनकर मंथन में भाग लिया। भगवान कच्छप  की एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूम रहा था। समुद्र मंथन  से सबसे पहले  जल  का हलाहल विष निकला, जिसकी ज्वाला बहुत तीव्र थी। हलाहल विष की ज्वाला से सभी  देवता  तथा  दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर  भगवान शंकर  की प्रार्थना की। देवताओं तथा असुरों की प्रार्थना पर महादेव शिव उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये, किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को 'नीलकण्ठ' कहा जाने लगा। हलाहल विष को पीते समय शिव की हथेली से थोड़ा-सा विष  पृथ्वी  पर टपक गया...

पंचकन्या

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पंचकन्या    पंचकन्या  वे पाँच कन्याएँ हैं, जिनका  भारत  के  हिन्दू सम्प्रदाय और धर्मग्रंथों में विशिष्ट स्थान है।  पुराणों  के अनुसार ये पाँच कन्याएँ विवाहित होते हुए भी  पूजा  के योग्य मानी गई हैं। [1] अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।  पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥ [2] इन पाँचों कन्याओं के नाम इस प्रकार हैं- अहल्या अहिल्या अहिल्या    अहल्या का उद्धार करते  श्रीराम अहिल्या   महर्षि गौतम  की पत्नी थी। ये अत्यंत ही रूपवान तथा सुन्दरी थी। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में देवराज  इन्द्र  ने अहिल्या से सम्भोग की इच्छा प्रकट की। यह जानकर कि इन्द्र उस पर मुग्ध हैं, अहिल्या इस अनुचित कार्य के लिए तैयार हो गई। महर्षि गौतम ने  कुटिया  से जाते हुए इन्द्र को देख लिया और उन्होंने अहिल्या को पाषाण बन जाने का शाप दिया। ' त्रेता युग ' में  श्रीराम  की चरण-रज से अहिल्या का शापमोचन हुआ। वह पाषाण से पुन: ऋषि-पत्नी हुई। भारतकोश के संस्थापक/संपादक के फ़ेसबुक लाइव के लिए यहाँ क्लिक करें। ...