पंचकन्या
पंचकन्या
पंचकन्या वे पाँच कन्याएँ हैं, जिनका भारत के हिन्दूसम्प्रदाय और धर्मग्रंथों में विशिष्ट स्थान है। पुराणों के अनुसार ये पाँच कन्याएँ विवाहित होते हुए भी पूजा के योग्य मानी गई हैं।[1]
अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥[2]
- इन पाँचों कन्याओं के नाम इस प्रकार हैं-
अहिल्या
अहिल्या महर्षि गौतम की पत्नी थी। ये अत्यंत ही रूपवान तथा सुन्दरी थी। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में देवराज इन्द्र ने अहिल्या से सम्भोग की इच्छा प्रकट की। यह जानकर कि इन्द्र उस पर मुग्ध हैं, अहिल्या इस अनुचित कार्य के लिए तैयार हो गई। महर्षि गौतम ने कुटिया से जाते हुए इन्द्र को देख लिया और उन्होंने अहिल्या को पाषाण बन जाने का शाप दिया। 'त्रेता युग' में श्रीराम की चरण-रज से अहिल्या का शापमोचन हुआ। वह पाषाण से पुन: ऋषि-पत्नी हुई।
अहिल्या
अहिल्या महर्षि गौतम की पत्नी थी। ये अत्यंत ही रूपवान तथा सुन्दरी थी। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में देवराज इन्द्र ने अहिल्या से सम्भोग की इच्छा प्रकट की। यह जानकर कि इन्द्र उस पर मुग्ध हैं, अहिल्या इस अनुचित कार्य के लिए तैयार हो गई। महर्षि गौतम ने कुटिया से जाते हुए इन्द्र को देख लिया और उन्होंने अहिल्या को पाषाण बन जाने का शाप दिया। 'त्रेता युग' में श्रीराम की चरण-रज से अहिल्या का शापमोचन हुआ। वह पाषाण से पुन: ऋषि-पत्नी हुई।
अन्य प्रसंग
अहिल्या से सम्बन्धित और भी कई प्रसंग प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
- गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ तप करते थे। एक दिन गौतम की अनुपस्थिति में इन्द्र ने मुनिवेश में आकर अहिल्या से सम्भोग की इच्छा प्रकट की। अहिल्या यह जानकर कि इन्द्र स्वयं आए हैं और उसे चाहते हैं, इस अधम कार्य के लिए उद्यत हो गयी। जब इन्द्र अहिल्या से सम्भोग करने के बाद वापस लौट रहे थे, उसी समय गौतम वहाँ पहुँच गए। गौतम के शाप से इन्द्र के अण्डकोश नष्ट हो गये और अहिल्या अपना शरीर त्याग, केवल हवा पीती हुई सब प्राणियों से अदृश्य होकर कई हज़ार वर्ष के लिए उसी आश्रम में राख के ढेर पर लेट गयी। गौतम ने कहा कि इस स्थिति से उसे मोक्ष तभी मिलेगा, जब दशरथ पुत्र राम यहाँ आकर उसका आतिथ्य ग्रहण करेंगे। गौतम स्वयं हिमवान् के एक शिखर पर चले गये और तपस्या करने लगे।
- इन्द्र ने स्वर्ग में पहुँचकर समस्त देवताओं को यह बात बतायी, साथ ही यह भी कहा कि ऐसा अधम काम करके गौतम को श्राप देने के लिए बाध्य कर, इन्द्र ने गौतम के तप को क्षीण कर दिया है। इन्द्र का अण्डकोश नष्ट हो गया था। अत: देवताओं ने मेष (भेड़ा) का अण्डकोश इन्द्र को प्रदान किया। तभी से इन्द्र मेषवृण कहलाए तथा वृषहीन भेड़ा अर्पित करना पुष्कल-फलदायी माना जाने लगा। वनवास के दिनों में राम-लक्ष्मण ने, तपोबल से प्रकाशमान, आश्रम में अहिल्या को ढूँढ़कर उसके चरण-स्पर्श किए। अहिल्या उनका आतिथ्य-सत्कार कर शापमुक्त हो गयी तथा गौतम के साथ सानन्द विहार करने लगी। [1]
- ब्रह्मा ने एक अनुपम सुंदरी कन्या का निर्माण किया, जिसे पोषण के लिए गौतम को दे दिया। उसके युवती होने पर गौतम निर्विकार भाव से उसे लेकर ब्रह्मा के पास पहुंचा। अनेक अन्य देवता भी उसे भार्या-रूप में प्राप्त करना चाहते थे। ब्रह्मा ने सबसे कहा कि पृथ्वी की दो बार परिक्रमा करके जो सबसे पहले आयेगा, उसी को अहिल्या दी जायेगी। सब देवता परिक्रमा के लिए चले गये और गौतम ने अर्धप्रसूता कामधेनु की दो प्रदक्षिणाएँ कीं। उसका महत्त्व सात द्वीपों से युक्त पृथ्वी की प्रदक्षिणा के समान ही माना जाता है। ब्रह्मा ने अहिल्या से गौतम का विवाह कर दिया।
- एक दिन इन्द्र गौतम का रूप धारण् कर उनके अंत:पुर में पहुँच गया। अहिल्या तथा अन्य रक्षक उसे गौतम ही समझते रहे, तभी गौतम और उनके शिष्य वहाँ पहुँचे। गौतम ने रुष्ट होकर अहिल्या को सूखी नदी होने का शाप दिया, साथ ही कहा कि गौतमी से मिल जाने पर वह पूर्ववत् हो जायेगी। इन्द्र को भी पाप शमन के निमित्त गौतमी में स्नान करना पड़ा। 'गौतमी-स्नान' के उपरान्त वह सहस्त्राक्ष हो गया।[2]
द्रौपदी
द्रौपदी | |
अन्य नाम | कृष्णा, पांचाली |
अवतार | शची (इन्द्राणी) का अंशावतार |
पिता | द्रुपद |
जन्म विवरण | द्रुपद ने द्रोणाचार्य से प्रतिशोध लेने के लिए यज्ञ किया था और उस यज्ञ से उन्हें पुत्र धृष्टद्युम्न और पुत्री कृष्णा की प्राप्ति हुई। |
समय-काल | महाभारत काल |
परिजन | भाई धृष्टद्युम्न, पिता द्रुपद |
विवाह | द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव से हुआ था। जिनके नाम इस प्रकार है- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव |
संतान | द्रौपदी को युवराज युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और सहदेव से श्रुतवर्मा नामक पुत्र थे। |
महाजनपद | पांचाल की राजकुमारी और हस्तिनापुरकी रानी। |
शासन-राज्य | कुरु |
संदर्भ ग्रंथ | महाभारत |
प्रसिद्ध घटनाएँ | 1.दुशासन ने द्रौपदी को केश पकड़कर खींचा था। उसके बाद द्रौपदी ने अपने केश सदैव खुले रखे, और उसके केश ही महाभारत का कारण बने। 2.द्रौपदी बाल्यावस्था से ही कृष्ण से विवाह करना चाहती थी किन्तु इनका विवाह अर्जुन से हुआ था। |
मृत्यु | स्वर्ग जाते समय द्रौपदी की मृत्यु मार्ग में सबसे पहले हुई। |
यशकीर्ति | द्रौपदी ने अपने पाँचों पुत्रों के हत्यारे अश्वत्थामा को क्षमा किया था। |
अपकीर्ति | द्रौपदी अपने पाँचों पतियों में से सबसे अधिक प्रेम अर्जुन से करती थीं इसलिए वह सशरीर स्वर्ग ना जा सकी। उनकी मृत्यु स्वर्ग जाते समय हो गई थी। |
संबंधित लेख | महाभारत |
- द्रौपदी का जन्म महाराज द्रुपद के यहाँ यज्ञकुण्ड से हुआ था। अतः यह ‘यज्ञसेनी’ भी कहलाई। द्रौपदी का विवाह पाँचों पाण्डव से हुआ था।
- द्रौपदी पूर्वजन्म में किसी ऋषि की कन्या थी। उसने पति पाने की कामना से तपस्या की। शंकर ने प्रसन्न होकर उसे वर देने की इच्छा की। उसने शंकर से पांच बार कहा कि वह सर्वगुणसंपन्न पति चाहती है। शंकर ने कहा कि अगले जन्म में उसके पांच भरतवंशी पति होंगे, क्योंकि उसने पति पाने की कामना पांच बार दोहरायी थी। [1]
- गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुये कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट 'याज' तथा 'उपयाज' नामक महान् कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य को मारने का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा, "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्निदेव को प्रसन्न कीजिये, जिससे कि वे आपको महान् बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।" महाराज ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न होकर अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया, जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था तथा प्रकट होते ही रथ पर चढ़ गया, जैसे युद्ध के लिए उद्यत हो। उसका नाम 'धृष्टद्युम्न' रखा गया। उसी समय आकाश में अदृश्य महाभूत ने कहा- 'यह बालक द्रोणाचार्य का वध करेगा।' तदुपरांत वेदी से द्रौपदी नामक सुंदर कन्या का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके नेत्र खिले हुये कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है। बालिका का नाम 'कृष्णा' रखा गया। आगे चलकर द्रोणाचार्य ने ही धृष्टद्युम्न को अस्त्रविद्या की शिक्षा दी।
द्रौपदी का स्वयंवर
कुंती तथा पांडवों ने द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना तो वे लोग भी सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुंचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था तथा एक कुम्हार की कुटिया में रहने लगे। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे। लाक्षागृह की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ाकर दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे, लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा। ब्राह्मणवेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुंचे। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा के धक्के से भूमिसात हो गये। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करना नहीं चाहा, अत: लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में पहुंचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया। कृष्ण उसे देखते ही पहचान गये। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय बन गया कि ब्राह्मण को कन्या क्यों दी गयी है। अर्जुन तथा भीमके रण-कौशल तथा कृष्ण की नीति से शांति स्थापित हुई तथा अर्जुन और भीम द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुंचे। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाये हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि सभी मिलकर उसे ग्रहण करो। पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न उन लोगों के पीछे-पीछे छुपकर आया था। वह यह तो नहीं जान पाया कि वे सब कौन हैं, पर स्थान का पता चलाकर पिता की प्रेरणा से उसने उन सबको अपने घर पर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। द्रुपद को यह जानकर कि वे पांडव हैं, बहुत प्रसन्नता हुई, किंतु यह सुनकर विचित्र लगा कि वे पांचों द्रौपदी से विवाह करने के लिए उद्यत हैं। तभी व्यास मुनि ने अचानक प्रकट होकर एकांत में द्रुपद को उन छहों के पूर्वजन्म की कथा सुनायी कि-
- एक वार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा। वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। व्यास मुनि के व्यवस्था देने पर द्रौपदी का विवाह क्रमश: पांचों पांडवों से कर दिया गया। व्यास ने उनके पूर्व रूप देखने के लिए द्रुपद को दिव्य दृष्टि भी प्रदान की थीं द्रुपद के दिये तथा कृष्ण के भेजे विभिन्न उपहारों को ग्रहण कर वे लोग द्रुपद की नगरी में ही विहार करने लगे।
- द्रौपदी ने पांच पांडवों से पांच पुत्रों की प्राप्ति की। उनके पुत्रों का नाम क्रमश:
- प्रतिविंध्य (युधि0),
- श्रुतसोम (भीम0),
- श्रुतकर्मा (अर्जुन),
- शतानीक (नकुल),
- श्रुतसेन (सहदेव) रखे गये [2]।
- युद्ध की समाप्ति पर जब पांडव, द्रौपदी, श्रीकृष्ण, सात्यकि आदि शिविर में न ठहरकर ओधवती नदी के तट पर रात बिताकर उठे तो उन्हें अश्वत्थामा के किये पांचाल-संहार का समाचार मिला। द्रौपदी अपने मायके के समस्त नाते-रिश्तों के नष्ट होने के विषय में सुनकर बहुत दुखी हुई तथा उसने आमरण अनशन आरंभ कर दिया। उसने कहा कि अश्वत्थामा के मस्तक में उसके जन्म के साथ उत्पन्न हुई एक मणि है। यदि मुझे मणि नहीं दी जायेगी तो मैं भोजन नहीं करूंगी और प्राण त्याग दूंगी। मणि मिलने पर मैं उसे देख लूंगी। भीमसेन अत्यंत आवेग में अश्वत्थामा को मारने के लिए चल पड़े। श्रीकृष्ण यह जानते थे कि अश्वत्थामा को द्रोण ने ब्रह्मास्त्र का उपदेश रखा है। यद्यपि उन्होंने अर्जुन को पूर्ण रूपेण ब्रह्मास्त्र प्रदान किया था। पूर्वकाल में अश्वत्थामा ने स्वयं कृष्ण को यह बताया था और यह भी कहा था कि वे अपना सुदर्शन चक्र उसे दे दें तो वह ब्रह्मास्त्र उन्हें प्रदान कर देगा। श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर उसे कहा कि वह कृष्ण का कोई भी अस्त्र ग्रहण कर ले। अश्वत्थामा अनेक प्रयत्नों के उपरांत भी सुदर्शन चक्र को नहीं उठा पाया- लज्जित होकर लौट गया था। अत: अर्जुन और युधिष्ठिर को लेकर वे भी भीम के पीछे अश्वत्थामा के पास पहुंचे। अश्वत्थामा ने पांडवों को नष्ट करने के लिए एक तिनके में ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया। वह तिनका भयानक रूप से प्रज्वलित हो उठा। अर्जुन ने अश्वत्थामा की मंगलकामना के साथ उसके ब्रह्मास्त्र को नष्ट करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। इससे पूर्व कि दोनों अस्त्र एक-दूसरे को नष्ट कर भयानक विस्फोट करते, नारद तथा व्यास ने प्रकट होकर दोनों वीरों को शांत होने का आदेश दिया क्योंकि मनुष्य पर उसका प्रयोग वर्जित है। अर्जुन अपने अस्त्र को लौटाने में समर्थ थे, अत: उन्होंने लौटा लिया किंतु अश्वत्थामा ने हाथ जोड़कर कहा कि वे लौटाने की शक्ति से संपन्न नहीं हैं। व्यास तथा नारद ने दोनों के अस्त्र छोड़ने के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए अश्वत्थामा से कहा कि वे अस्त्र का परिहार करें। अश्वत्थामा अत्यंत लज्जित होकर बोले कि वे इसमें असमर्थ हैं, क्योंकि पांडवों पर न छूटकर यह अस्त्र पांडवों के गर्भस्थ शिशुओं का नाश करेगा। व्यास की आज्ञा का पालन करते हुए अश्वत्थामा ने अपने मस्तिष्क की मणि भी पांडवों को अर्पित कर दी। वह समस्त राज्य से अधिक मूल्यवान तथा शस्त्र, क्षुधा, देवता, दानव, नाग, व्याधि, आदि से रक्षा करने वाली थी। श्रीकृष्ण ने पुन: कहा कि विराट की कन्या और अर्जुन की पुत्रवधू को (जब वह उपालव्य नगर में रहती थी) एक ब्राह्मण ने वरदान दिया था कि कौरव वंश के क्षीण होने के उपरांत वह परीक्षित नामक शिशु को जन्म देगी। वह वचन तो सत्य होगा ही। अश्वत्थामा इस पर क्रुद्ध होकर बोला-'मेरा ब्रह्मास्त्र सभी गर्भस्थ शिशुओं को मार डालेगा।' श्रीकृष्ण ने कहा-'ठीक है, वह मृत उत्पन्न होकर लंबी आयु उपलब्ध करेगा तथा तेरे देखते-देखते ही वह भूमंडल का सम्राट होगा। उस मृत बालक को मैं जीवनदान दूंगा। और तू? तू रोगों से पीड़ित होकर इधर-उधर भटकेगा।' व्यास, नारद, अश्वत्थामा को साथ लेकर वे सब द्रौपदी के पास पहुंचे। भीम ने उसे मणि देकर कहा- 'तुम्हारा दु:ख स्वाभाविक है, पर जब-जब शांति और संधि की बात उठी, तुमने अपने विगत अपमान की याद दिलाकर सबकों युद्ध के लिए उत्साहित किया। अब तुम्हें वे सब बातें याद करनी चाहिए।' द्रौपदी ने कहा-'मैं अपने पुत्रों के वध का प्रतिशोध लेना चाहती थी। गुरु-पुत्र तो मेरे लिए भी गुरु ही हैं।' द्रौपदी के कहने से युधिष्ठिर ने वह मणि अपने मस्तक पर धारण कर ली [3]।
- वास्तव में द्रौपदी साक्षात शची थी और पांडव इन्द्रके ही पांच रूप थे। पूर्वकाल में इन्द्र के हाथों त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप का हनन हो गया था। ब्रह्महत्या के कारण इन्द्र का तेज़ धर्मराज में प्रविष्ट हो गया। त्वष्टा ने क्रुद्ध होकर अपनी एक जटा उखाड़कर होम की। फलत: होमकुण्ड से वृत्र का आविर्भाव हुआ। उसे अपने वध के लिए उद्यत देख इन्द्र ने सप्तर्षियों से प्रार्थना की। उन्होंने कुछ शर्तों पर उन दोनों का समझौता करवा दिया। इन्द्र ने शर्त का उल्लंघन कर वृत्र को मार डाला, अत: इन्द्र के शरीर से निकलकर 'बल' ने वायु में प्रवेश किया। इन्द्र ने गोतम का रूप धारण कर अहिल्या के सतीत्व का नाश किया, अत: उसका रूप उसे छोड़ अश्विनीकुमारों में समा गया। पृथ्वी का भार हल्का करने के लिए जब सब देवता पृथ्वी पर अवतार लेने लगे, तब धर्म ने इन्द्र का तेज़ कुंती के गर्भ में प्रतिष्ठित किया, अत: युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायु ने इन्द्र का बल कुंती के गर्भ में प्रतिष्ठत किया तो भीम का जन्म हुआ। इन्द्र के आधे अंश से अर्जुन तथा अश्विनीकुमारों के द्वारा माद्री के गर्भ में इन्द्र के ही 'रूप' की प्रतिष्ठा के फलस्वरूप नकुल और सहदेव का जन्म हुआ। इस प्रकार पांडव इन्द्र के रूप थे तथा कृष्णा शची का ही दूसरा रूप थी [4]।
कुन्ती
कुन्ती महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक है। श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की बहन थीं और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं। महाराज कुन्तिभोज से इनके पिता की मित्रता थी, उसके कोई सन्तान नहीं थी, अत: ये कुन्तिभोज के यहाँ गोद आयीं और उन्हीं की पुत्री होने के कारण इनका नाम कुन्ती पड़ा। महाराज पाण्डु के साथ कुन्ती का विवाह हुआ, वे राजपाट छोड़कर वन चले गये। वन में ही कुन्ती को धर्म, इन्द्र, पवन के अंश से युधिष्ठर, अर्जुन, भीम आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई और इनकी सौत माद्री को अश्वनीकुमारों के अंश से नकुल, सहदेव का जन्म हुआ। महाराज पाण्डु का शरीरान्त होने पर माद्री तो उनके साथ सती हो गयी और ये बच्चों की रक्षा के लिये जीवित रह गयीं। इन्होंने पाँचों पुत्रों को अपनी ही कोख से उत्पन्न हुआ माना, कभी स्वप्न में भी उनमें भेदभाव नहीं किया।
जीवन परिचय
पृथा (कुंती) महाराज शूरसेन की बेटी और वसुदेव की बहन थीं। शूरसेन के ममेरे भाई कुन्तिभोज ने पृथा को माँगकर अपने यहाँ रखा। इससे उनका नाम 'कुंती' पड़ गया। पृथा को दुर्वासा ऋषि ने एक मंत्र बतला दिया था जिसके द्वारा वे किसी देवता का आवाहन करके उससे संतान प्राप्त कर सकती थीं। समय आने पर स्वयंवर-सभा में कुंती ने पाण्डु को जयमाला पहनाकर पति रूप से स्वीकार कर लिया।
महर्षि दुर्वासा का वरदान
आगे चलकर पाण्डु को शाप हो जाने से जब उन्हें संतान उत्पन्न करने की रोक हो गई तब कुंती ने महर्षि दुर्वासा के वरदान का हाल सुनाया। यह सुनने से महाराज पाण्डु को सहारा मिल गया। उनकी अनुमति पाकर कुंती ने धर्मराज के द्वारा युधिष्ठिर को, वायु के द्वारा भीमसेन को और इन्द्र के द्वारा अर्जुन को उत्पन्न किया। इसके पश्चात् पाण्डु ने पुत्र उत्पन्न करने के लिए जब उनसे दोबारा आग्रह किया तब उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि यह नियम - विरुद्ध और अनुचित होगा।
वैवाहिक जीवन
वास्तव में कुंती का वैवाहिक जीवन आनन्दमय नहीं हुआ। आरम्भ में उन्हें कुछ सुख मिला, किंतु इसके अनंतर पति के शापग्रस्त होकर रोगी हो जाने और कुछ समय पश्चात् मर जाने से उनको बड़े क्लेश सहने पड़े। ऋषि लोग जब बालकों समेत विधवा कुंती को उनके घरवालों को सौंपने हस्तिनापुर ले गये तब वहाँ उनका स्वागत तो हुआ नहीं, उल्टा वे सन्देह की दृष्टि से देखी गईं। उनकी संतान को वैध संतति मानने में आपत्ति की गई। किसी प्रकार उनको रख भी लिया गया तो तरह-तरह से सताया जाने लगा। वे अपने पुत्रों के साथ "वारणावत" भेजी गईं। और ऐसे भवन में रखी गईं जो किसी भी घड़ी भभककर सबको भस्म कर देता। किंतु हितैषी विदुर के कौशल से वे संकट से पुत्रों समेत बचकर निकल गईं। जंगल में उन्होंने विविध कष्ट सहे। साथ में पुत्रों के रहने से उनके लिए बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ भी सरल हो गईं। इन्हीं कष्टों के सिलसिले में उनको पुत्रवधू द्रौपदी की प्राप्ति हुई। इससे उन्हें कुछ संतोष हुआ। इसी बीच उन्हें धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर में बुलाकर अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया जिसमें कोई झगड़ा-बखेड़ा न हो। यही थोड़ा-सा समय था जब कुंती को कुछ आराम मिला।
कुन्ती का पाण्डवों के साथ वनवास
इसके बाद दुर्योधन ने युधिष्ठिर को जुए में हराकर शर्त के अनुसार वनवास करने को भेज दिया। इस वनवास के समय कुंती को अपने पुत्रों से अलग हस्तिनापुर में रहना पड़ा। उनके लिए यह बहुत बड़ा संकट था। उन्होंने हस्तिनापुर से युधिष्ठिर के पास संदेशा भेजा था वह उन जैसी वीर पत्नी और वीरमाता के अनुरूप था। वे नहीं चाहती थीं कि संकट में पड़कर उनके पुत्र आत्मसम्मान को खो बैठें। संकट सहते-सहते उन्हें संकटों से एक प्रकार का प्रेम हो गया था। इसी से, एक बार श्रीकृष्ण के वरदान देने को तैयार होने पर कुंती ने कहा था कि यदि मैं धन-दौलत अथवा और कोई वस्तु माँगूँगी तो उसके फेर में पड़कर तुम्हें (भगवान को) भूल जाऊँगी, इसलिए मैं ज़िन्दगी भर कठिनाइयों से घिरी रहना पसन्द करती हूँ। उनमें फँसे रहने से मैं सदा तुमको स्मरण किया करूँगी।
माद्री का विश्वास
कुंती की सौत का नाम माद्री था। साथ कुंती का बर्ताव बहुत ही अच्छा था। वह कुंती को अपने बेटे सौंपकर सती हो गई थी। उसने कुंती से कहा था कि मैं पक्षपात से बचकर अपने और तुम्हारे बेटों का पालन न कर सकूँगी। यह कठिन काम तुम्हीं करना। मुझे तुम पर पूरा-पूरा भरोसा है।
धृतराष्ट्र और गान्धारी का सत्कार
जेठ-जेठानी-धृतराष्ट्र और गान्धारी-के पुत्रों ने यद्यपि कुंती के लड़कों को कष्ट देने में कुछ कमी नहीं की थी फिर भी वे सदा जेठ-जेठानी का सत्कार किया करती थीं। पाण्डवों को राज्य प्राप्त हो जाने पर कुछ समय के बाद जब धृतराष्ट्र, गान्धारी के साथ, वन को जाने लगे तब कुंती भी उनके साथ हो गईं। धृतराष्ट्र आदि ने उनको घर रखने के लिए बहुत-बहुत समझाया, वे रोये-गिड़गिड़ाये भी, किंतु नहीं लौटीं। उन्होंने धर्मराज से स्पष्ट कर दिया कि 'मैंने अपने आराम के लिए तुमको युद्ध करने के लिए सन्नद्ध नहीं किया था, युद्ध कराने का मेरा उद्देश्य यह था कि तुम संसार में वीर की भाँति जीवन व्यतीत कर सको।' उन्होंने वन में जाकर अपने जेठ-जेठानी की सेवा-शुश्रूषा जी-जान से की। इस दृष्टि से उसका महत्त्व गान्धारी से भी बढ़ जाता है। गान्धारी को संतान-प्रेम था, वे अपने पुत्रों का भला चाहती भी थीं। यद्यपि दुर्योधन के पक्ष को न्याय-विरुद्ध जानकर उन्होंने उसे विजय का आशीर्वाद नहीं दिया था, फिर भी माता का हृदय कहाँ तक पत्थर का हो जाता। उन्होंने कुरुक्षेत्र का संहार देख अंत में श्रीकृष्ण को शाप दे ही डाला। किंतु कुंती ने हज़ार कष्ट सहने पर भी ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे उनके चरित्र का महत्त्व कम हो जाय। उनमें इतनी अधिक दया थी कि वे एकचक्रा नगरी में रहते समय, अपने आश्रयदाता ब्राह्मण के बेटे के बदले अपने पुत्र भीमसेन को राक्षस की भेंट करने को तैयार हो गईं। थीं। यह दूसरी बात है कि उस राक्षस से भीमसेन इक्कीस निकले और उसे मारकर उन्होंने बस्तीवालों का संकट काट दिया। कुंती इतनी उदार थीं कि उन्होंने हिडिम्बा राक्षसी को भी पुत्रवधू मानने में आपत्ति नहीं की।
तारा (बालि की पत्नी)
![]() | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- तारा (बहुविकल्पी) |
तारा प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण के अनुसार सुग्रीव के भाई बालि की पत्नी व सुषेण की पुत्री थी। लंका के राजा रावणकी भरी सभा अपना पैर गाड़ने वाला अंगद तारा का ही पुत्र था।
- रामायण में श्रीराम के हाथों बालि का वध हुआ था।
- बालि की मृत्यु के उपरांत उसकी पत्नी तारा से बालि के छोटे भाई सुग्रीव ने विवाह किया।[1]
- तारा की गिनती पंचकन्याओं में भी की जाती है-
अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, वनपर्व, 280 1 से 39
- ↑ ब्रह्म पुराण 3.7.219
मंदोदरी
भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 458 |
- ↑ प्रा.भा.सं.को., पृष्ठ 212
- ↑ ब्रह्म पुराण 3.7.219
मंदोदरी
मंदोदरी रामकथा-काव्यों में मन्दोदरी का चरित्र वर्णित हुआ है।
- इसके पिता का नाम मयासुर था तथा माता रम्भानामक अप्सरा थी।
- मन्दोदरी का विवाह रावण से हुआ था तथा इससे रावण के इन्द्रजित नामक पुत्र भी उत्पन्न हुआ था।
- मंदोदरी पंचकन्याओं में से एक थी।
अहल्या द्रौपदी तारा कुंती मंदोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेतन्नित्यं महापातकनाशम्॥[1]
रामचरितमानस में मंदोदरी
- मन्दोदरी एक ऐसी रानी है, जिसने यथा समय नीति के अनुसार रावण को समझाने की चेष्टा की । वह राम की शूरवीरता से परिचित थीं अतः उसने कहा-
अति बल मधु कैटभ जेहि मारे । महाबीर दितिसुत संघारे ।। जेंहि बलि बाँधि सहसभुजमारा । सोई अवतरेउ हरन महि मारा।।[2]
- उसने रावण को अनेक तरह से समझाया, पर रावण अपनी हठ पर अड़ा रहा । ऐसी स्थिति में उसने भी यह मान लिया था कि उसका प्रति काल के वश में है अतः उसे अभिमान हो गया है, यथा-
नाना विधि तेहि कहेसि बुझाई । सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ।। मन्दोदरी हृदय अस जाना । काल बस्य उपजा अभिमाना ।।[3]
- मन्दोदरी राजनीति की विशारद् और राज-काज की सहायिका भी थी । उसने नगरवासियों के विचारों को जानने के लिए दूतियों तक को नियुक्त कर रखा था । समय की प्रतिकूलता को जानकर ही उसने रावण को समझाने का प्रयास किया था, पर रावण की हठ के कारण वह असफल रही ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्म पुराण 3.7.219
- ↑ रामचरितमानस, लंकाकांड, पृ. 761-62
- ↑ रामचरितमानस, लंकाकांड, पृ. 763
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