त्रिपुर

त्रिपुर  

त्रिपुर से अभिप्राय: तीन पुरों (नगरों) से है। इन नगरों के निर्माण के विषय में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों तथा पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। इन कथाओं का विवरण इस प्रकार से है-

प्रथम सन्दर्भ

देवताओं और असुरों में परस्पर विजय पाने के लिए सर्वप्रथम तारकामय युद्ध हुआ। उस समय देवताओं ने दैत्योंको परास्त कर दिया। दैत्यों के परास्त होने के उपरान्त ताराकासुर के तीन पुत्र 'ताराक्ष', 'कमलाक्ष' तथा 'विद्युन्माली' ने तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया तथा वर प्राप्त किया कि वे तीनों आकाश में तीन वृहत् नगराकार विमानों में तीन पुरों की स्थापना करेंगे। तीनों पुरों में से एक सोने का पुर स्वर्गलोक में स्थित हुआ, जिसका अधिपति तारकाक्ष था। दूसरा पुर चाँदी का था, जिसका अधिपति कमलाक्ष बना तथा वह अंतरिक्ष लोक में स्थित हुआ। तीसरे पुर का अधिपति विद्युन्माली बना। वह पुर लोहे का था तथा उसकी स्थापना भूलोक में हुई। इस प्रकार वे तीनों दैत्य, तीनों लोकों को दबा कर रखते थे। उन तीनों पुरों का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था।

ब्रह्मा का वरदान

दैत्यों ने जब त्रिपुर स्थापना कर वर प्राप्त किया था, तब वे त्रिपुर के अजर अमरत्व के आकांक्षी भी थे, किन्तु ब्रह्मा ने यह नहीं माना था। अंततोगत्वा यह निश्चित हुआ था कि एक सहस्र वर्ष के उपरान्त तीनों पुर परस्पर मिलेंगे-उस समय एक ही बाण से मार डालने वाला देवेश्वर ही उनके नाश का कारण बन पायेगा। तारकाक्ष के पुत्र का नाम हरि था। उसने तपस्या से ब्रह्मा को संतुष्ट कर तीनों नगरों में ऐसा एक-एक तालाब बनवाने का वर प्राप्त किया, जिसमें स्नान करके मृत दैत्य पुन: जीवित हो जायें। अत: दैत्यों की मृत्यु कठिन हो गई। उन दैत्यों से देवतागण अत्यन्त त्रस्त हो गये। उन्हें नष्ट करने में देवताओं का कोई प्रयत्न भी फलीभूत नहीं हुआ। तब वे सब ब्रह्मा के पास पहुँचे तथा उनके दिये वरदान का निराकरण पूछने लगे। ब्रह्मा ने कहा कि मात्र शिव ही एक बाण से त्रिपुर का नाश करने में समर्थ हैं। देवताओं ने शिव की शरण ग्रहण की। शिव ने उनसे कहा कि वे शिव का आधा बल ग्रहण करके दानवों से युद्ध करें; पर देतवाओं ने उत्तर दिया कि वे शिव का आधा बल ग्रहण करने में असमर्थ हैं। शिव ही सब देवताओं का आधा बल ग्रहण करके त्रिपुर का वध कर दें। शिव ने स्वीकार कर लिया।

देवताओं की विजय

देवताओं ने तीनों लोकों के तेज़ से शिव के लिए एक तेज़स्वी रथ का निर्माण किया। निर्माणकर्ता विश्वकर्मा ही थे। उसने दिव्य बाण का निर्माण किया, जिसकी गाँठ में अग्नि, फल में चन्द्रमा तथा अग्रभाग में विष्णु का निवास था। जगत् के विविध उपकरणों से बने उस दिव्य रथ में सूर्यतथा चन्द्रमा पहिये बने। अपनी जटाएँ समेटकर, मृगचर्म कसकर तथा कमंडलु को अलग रखकर ब्रह्मा सारथी बने तथा उन्होंने अपने हाथ में चाबुक ले लिया। धनुष के क्षोभ से रथ शिथिल होने लगा, तो बाण के भाग से बाहर निकलकर विष्णु ने वृषभ का रूप धारण किया तथा शिव के विशाल रथ को ऊपर उठाया। शिव ने वृषभ तथा घोड़े की पीठ पर खड़े होकर त्रिपुर देखे। शिव ने वृषभ के खुरों को चीरकर दो भागों में बांट दिया, तथा घोड़े के स्तन काट दिये। तभी से बेलों के दो-दो खुर होते हैं तथा घोड़े के स्तन नहीं होते। तदन्तर शिव ने उस दिव्य बाण से एक रूप हुए त्रिपुर का नाश कर दिया। देवतागण प्रसन्नचित अपने-अपने स्थान पर लौट गये।[1]

द्वितीय सन्दर्भ

इस सन्दर्भ की पूर्व कथा प्रथम सन्दर्भ के अनुसार ही है। दैत्यों से त्रस्त होने के पश्चात् सभी देवता शिव की शरण में पहुँचे। शिव ने बाण से उनका उच्छेद किया, किन्तु मय मायाप्रवीण था। उसने समस्त दैत्यों को उठाकर अमृत के कुएँ में डाल दिया। अत: वे फिर से जी उठे। कृष्ण ने अपने संकल्प में विफल महादेव को उदास देखा तो एक उपाय खोज निकाला। कृष्ण और ब्रह्मा क्रमश: गौ तथा बछड़ा बनकर तीनों पुरों में गये और कुओं का अमृत पी गये। तदन्दर तीनों लोकों (त्रिपुर) को जला दिया गया और फिर शिव 'त्रिपुरारि' कहलाये।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय मिथक कोश |लेखक: डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति |प्रकाशक: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 122 |

  1.  महाभारत, कर्णपर्व, 33/-कर्णपर्व|34|118 हरिवंश पुराण, भविष्यपर्व।
  2.  श्रीमदभागवत., सप्तम स्कंध, अध्याय 10, श्लोक 53-71
  3.  शिवपुराण, पूर्वार्द्ध 5|1-9

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