एक दिन लक्ष्मी जी की बड़ी बहन ज्येष्ठा ने उनसे कहा, 'बहुत दिनों से एक बात मेरे मस्तिष्क में कौंध रही है। सोचती हूँ कि तुमसे पूछूं या नहीं।' 'ऐसी क्या बात है बहन? मन में जो कुछ भी है, निःसंकोच पूछो। वैसे भी कोई बात मन में न रखकर उसका समाधान कर लेना ही बुद्धिमानी है।' लक्ष्मी जी ने मुस्कराकर कहा। 'मैं अक्सर यही सोचती रहती हूँ कि सुंदरता में हम दोनों बराबर हैं, फिर भी लोग तुम्हारा आदर करते हैं और मैं जहाँ भी जाती हूँ, वहाँ उदासी छा जाती है। मुझे लोगों की घृणा और क्रोध का शिकार होना पड़ता है जबकि हम दोनों सगी बहनें हैं। ऐसा क्यों?' लक्ष्मी जी ने हँसकर कहा, 'सगी बहन या समान सुंदरता होने से ही आदर नहीं मिलता। उसके लिए अपने को भी कुछ करना चाहिए। लोग मेरा आदर इसलिए करते हैं क्योंकि मैं उनके घर पहुँचते ही सुख के साधन जुटा देती हूँ। सम्पत्ति और वैभव से आनंदित होकर लोग मेरा उपकार मानते हैं, तभी मेरी पूजा करते हैं। उधर, तुम्हारा यह हाल है कि जिसके यहाँ भी तुम जाती हो; उसको ग़रीबी, रोग और आपदा सहनी पड़ती है। इसी वजह से लोग तुमसे घृणा करते हैं। कोई आदर नहीं करता। आदर पाना है तो दूसरों को सुख पहुँचाओ।' ज्येष्ठा को लक्ष्मी जी की बात चुभ गई। उन्हें लगा कि लक्ष्मी को अपनी महिमा का अभिमान हो गया है। उन्होंने तड़प कर कहा, 'लक्ष्मी! तुम मुझसे हर बात में छोटी हो−अवस्था में भी और प्रभाव में भी। मुझे उपदेश देने का भी विचार न करो। अगर तुम्हें अपने वैभव का अहंकार है तो मेरे पास भी अपना एक प्रभाव है। मैं जब अपनी पर आ जाऊँ तो तुम्हारे करोड़पति भक्त को भी पल भर में भिखारी बना दूँ।' लक्ष्मी जी को हँसी आ गई और कहने लगीं, 'बहन! तुम बड़ी हो, इसलिए कुछ भी कह लो। लेकिन जहाँ तक प्रभाव की बात है, मैं तुमसे कम नहीं हूँ। जिसको तुम भिखारी बनाओगी, उसे मैं दूसरे दिन रंक से फिर राजा बना दूँगी। मेरी महिमा का अभी तुम्हें पता ही कहाँ है।' 'और तुम्हें भी मेरी महिमा का पता ही नहीं है। जिसकी तुम सहायता करोगी, उसे मैं दाने−दाने के लिए भी मोहताज कर दूँगी।'
'देखो बहन! दाने−दाने के लिए तो तुम उसे मोहताज कर सकती हो जिससे मैं रूठ जाऊँ। जिसके सिर पर मेरा वरदहस्त न हो, उसका तुम कुछ भी बिगाड़ सकती हो। परंतु जिस पर मेरी कृपादृष्टि है, उसका कोई भी बाल तक बांका नहीं कर सकता। अगर तुम अपना प्रभाव दिखाने को इतनी ही उतावली हो रही हो तो कल अपना प्रभाव दिखाकर देख लेना।' 'ठीक है। बोलो, कहाँ चलें?' 'दूर क्यों जाएँ, पास ही अनुराधापुर है। उसमें एक ब्राह्मण रहता है−दीनानाथ। वह रोज़ मंदिर में पूजा करने जाता है और मेरा पक्का भक्त है। उसी पर हमें अपनी−अपनी महिमा दिखानी है।' ज्येष्ठा को ताव आ गया। उन्होंने हाथ झटककर कहा, 'ठीक है, ठीक है। देख लेना, कल तुम्हारा सिर ही झुक जाएगा।' कहकर वह एक ओर चली गई। लक्ष्मी जी वहीं खड़ी बहन के क्रोध ओर अहंकार पर मुस्कराती रहीं। दूसरे दिन दोनों बहनें अनुराधापुर के विष्णु मंदिर में पहुँचीं। उन्होंने वेश बदल रखा था। साधारण स्त्रियों की तरह वे दोनों मंदिर के द्वार पर बैठ गईं। लोगों ने देखा अवश्य, किंतु किसी ने उनकी ओर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। ध्यान देने वाली कोई ख़ास बात थी भी नहीं। वह मंदिर था और वहाँ हर रोज़ दीन दुःखी आते−जाते रहते थे। वहाँ आने वाले सभी किसी न किसी परेशानी में घिरे रहते थे। फिर भला उन्हें किसी दूसरे की परेशानी से क्या सरोकार हो सकता था। थोड़ी देर बाद वहाँ दीनू पंडित आया। दोनों बहनों की नज़रें उस पर जम गईं। पूजा करके जब वह लौटने लगा तो ज्येष्ठा ने कहा, 'लक्ष्मी! वह तुम्हारा भक्त आ रहा है। बन पड़े तो कोई सहायता करो।' 'हाँ, करती हूँ।' कहकर लक्ष्मी जी ने एक पोला बांस दीनू के रास्ते में रख दिया जिसमें मोहरें भरी हुई थीं। ज्येष्ठा ने बांस को छूकर कहा, 'अब तुम मेरा प्रभाव भी देख लेना।' पूजा करके लौट रहे दीनू ने रास्ते में पड़ा हुआ वह बांस का टुकड़ा उठा लिया। उसका विचार था कि वह किसी काम आ जाएगा। घर में सौ ज़रूरतें होती हैं। अभी वह पंडित कुछ ही आगे बढ़ा था कि उसे एक लड़का मिला। लड़के ने पहले पंडित जी से राम−राम की, फिर बड़ी ही नम्रता से बोला, 'पंडित जी! मुझे अपनी चारपाई के लिए बिल्कुल ऐसा ही बांस चाहिए। दादा जी ने यह कहकर भेजा है कि जाओ, बाज़ार से ले आओ। ऐसा बांस पंडित जी कहाँ मिलेगा?' दीनू ने कहा, 'मैंने मोल नहीं लिया। रास्ते में पड़ा था; सो उठा लाया। लो, तुम्हें ज़रूरत है तो तुम ही रख लो। वैसे बाज़ार में एक रुपये से कम का नहीं है।' लड़के ने चवन्नी देते हुए कहा, 'मगर मेरे पास तो यह चवन्नी ही है, पंडित जी। अभी तो आप इसे ही रखिए, बाकी बारह आने शाम को दे जाऊँगा।' पंडित जी खुश थे कि बिना किसी हील−हुज्जत के रुपया कमा लिया। दीनू पंडित ने चवन्नी लेकर बांस लड़के को दे दिया और वह चवन्नी अपनी डोलची में रख दी।
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