वरुणदेव का वरदान

वरुणदेव का वरदान  

मां−बाप के मर जाने पर त्रिलोकनाथ अनाथ हो गया। परिवार में अब केवल बड़ा भाई आलोक बचा था जो उससे द्वेष रखता था, क्योंकि वह सौतेला था। आलोक शादी−शुदा था। उसकी पत्नी उसके कहने में चलती थी और पति की भांति वह भी त्रिलोकनाथ से कोई ख़ास स्नेह नहीं रखती थी। अतः त्रिलोक को रूखा−सूखा जो कुछ भी मिलता, वह उसी में संतोष कर लेता था। आलोक और उसकी पत्नी आराम से रहते, खाते−पीते और मौज करते थे, जबकि त्रिलोक दिन−भर घर का काम करता, जानवरों को चारा−पानी देता और बाकी समय खेतों में जुटा रहता। फिर भी वह भर पेट भोजन नहीं पाता था। इस पर भी वह संतोषी इतना था कि किसी से कोई शिकवा−शिकायत नहीं करता था। कुछ दिन बाद आलोक ने उसका विवाह कर दिया और जायदाद का बंटवारा करके उसे अपने से अलग कर दिया। दोनों भाई अलग−अलग गृहस्थी चलाने लगे।

आलोक ने मां−बाप की एकत्रित की गई धनराशि का बड़ा हिस्सा पहले ही हथिया लिया था। चालाक और लोभी तो वह था ही, अतः जायदाद में अच्छी और कीमती ज़मीन उसने ले ली थी, जबकि त्रिलोक के हिस्से में बंजर ज़मीन और बेकार की चीज़ें ही आईं। फिर भी वह कुछ नहीं बोला। जो कुछ मिला, उसे लेकर प्रसन्न मन से अलग रहने लगा। आलोक ने तो बंटवारे में भी छल−कपट से काम लिया था, अतः उसका घर सम्पन्न था। सुख−सुविधा की हर वस्तु उसके घर में मौजूद थी। वह अच्छा खाता−पहनता था और लेन−देन का धंधा भी करता था। इस प्रकार उसका धन दिन−प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। दूसरी ओर त्रिलोक मेहनत−मज़दूरी करके अपना पेट पाल रहा था। आलोक दिन−प्रतिदिन अमीर होता जा रहा था और त्रिलोक ग़रीब। घर की आवश्यकता को पूरा करने के लिए उसे जब−तब त्रिलोक के आगे हाथ फैलाना पड़ता था। जिसका परिणाम यह निकला कि कुछ ही वर्षों में त्रिलोक की सारी ज़मीन आलोक के यहाँ गिरवी हो गई। गाँव के दूसरे लोगों का भी बहुत−सा कर्ज़ उस पर चढ़ गया था। अब वह नित्य मज़दूरी करता और उसी से घर का खर्च चलाता था।


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