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विश्वामित्र और मेनका की प्रेम कहानी

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विश्वामित्र और मेनका की प्रेम कहानी आज आपको बता रहे हैं कि कैसे विश्वामित्र और स्वर्ग की अप्सरा मेनका के बीच प्रेम हुआ था। और क्यों अप्सरा मेनका विश्वामित्र को छोड़कर चली गई थी? तो चलिए आप को इस पोस्ट में बताते हैं इस रहस्यमई पौराणिक कथा के बारे में। विश्वामित्र और मेनका की प्रेम कहानी को शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो नहीं जानता होगा विश्वामित्र और मेनका की प्रेम कहानी के कई किस्से व्याप्त है लेकिन क्या आप जानते हैं कि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका का मिलन कहां हुआ था उनका प्यार कहां जन्मा था और आखिर क्यों स्वर्ग की अप्सरा मेनका उन्हें छोड़कर चली गई थी आज हम आपको बताएंगे विश्वामित्र और स्वर्ग की अप्सरा मेनका की प्रेम कहानी दोस्तों बात उस समय की है महर्षि विश्वामित्र वन में अपनी एक कठोर तपस्या में लीन थे तपस्या करते हुए उनके शरीर में किसी भी तरह की कोई हलचल नहीं हो रही थी और उनके चेहरे पर एक तेज प्रकाश था उन के चारों ओर कई तरह के जानवर घूम रहे थे पशु-पक्षी चहक रहे थे लेकिन विश्वामित्र के तप को भंग करने का साहस और हिम्मत किसी के पास नहीं थी जब विश्वामित्र की तपस्या की जानकारी भगवान इंद्र...

इस श्राप से इंद्र के शरीर में बन गई थी 1000 आँखे

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इस श्राप से इंद्र के शरीर में बन गई थी 1000 आँखे हिन्दू धर्म से जुड़ी पौराणिक कथाओं में ज्यादातर हमने पुरुष पात्रों के बारे में ही सुना है। चाहे रामायण की बात हो या फिर महाभारत काल की, पुरुष पात्रों का गुणगान हमनें किसी महायोद्धा या अवतार के रुप में ही सुना है। लेकिन इन पौरोणिक कथाओं में ऐसी कई महिलाएं पात्र थी जिनकी भूमिका के वर्णन के बिना ये कथाएं अधूरी रह जाती है। ये महिलाएं न सिर्फ इन कथाओं की पात्र बल्कि इनके जीवन के पीछे कई उद्देश्‍य छिपे थे, जो आज भी हर महिलाओं को अन्‍याय के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करता है। रामायण में कई रोचक कहानियों का समावेश किया गया है उनमे से एक हैं अहिल्या उद्धार की कहानी जो आज के समय से जोडकर देखिये तब आप को समझ में आएगा की इतिहास में भी बलात्कारियों को युगों युगों तक सजा का भुक्तं करना पड़ा फिर वो देव ही क्यू न हों | वैसे तो अहिल्‍या के बारे रामायण में वर्णन आता है कि भगवान राम के पांव लगाते ही वो पत्‍थर से इंसान बन गई थी। लेकिन वो पत्‍थर कैसी बनी और अहिल्‍या कौन? माता अहिल्या जिन्हें ब्रम्हा जी ने स्वयं बनाया था |इनकी काया बहुत सुंदर थी | इन्हें वरदान ...

देवी भगवती रजस्वला होते, तीन दिवस योनीतून वाहतं रक्त

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देवी भगवती रजस्वला होते, तीन दिवस योनीतून वाहतं रक्त देवीचे एकूण 51 शक्तिपीठे असून त्यातून एक देवी कामाख्‍या शक्तिपीठ आसामच्या गुवाहाटीहून 8 किलोमीटर अंतरावर असलेल्या निलांचल पर्वतावर आहे. या मंदिराचे तांत्रिक शास्त्रात विशेष महत्त्व आहे. येथे भगवतीची महामुद्रा योनी-कुंड यात स्थित आहे.   पौराणिक आख्यायिकेनुसार अम्बूवाची पर्वाच्या दरम्यान देवी भगवती रजस्वला होते आणि तिच्या गर्भ गृहातील योनीतून सलग तीन दिवस जल प्रवाहाच्या जागी रक्त वाहते. हे रहस्यमयी विलक्षण तथ्य आहे. कामाख्या तंत्रानुसार श्लोकामध्ये याचे विवरण असे आहे- योनी मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा॥    विशेष म्हणजे अम्बूवाची योग पर्व दरम्यान देवी भगवतीच्या गर्भगृहाची दारे आपोआप बंद होतात. या दरम्यान देवीचे दर्शन निषिद्ध मानले गेले आहे. या पर्वात भगवतीच्या रजस्वला काळात गर्भगृहात स्थित महामुद्रेवर पांढरे कपडे अंथरले जातात. तीन दिवसाने पांढरा कपडा देवीच्या रजने रक्तवर्ण होतात. या वस्त्राचे तुकडे भक्तांना प्रसाद म्हणून देतात. तीन दिवसानंतर रजस्वला समाप्तीवर विशेष पूजा, अर्चना केली ज...

दंतकथा आणि त्याचा समाज जीवनावर परिणाम

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दंतकथा आणि त्याचा समाज जीवनावर परिणाम आपल्या भारतात साधुसंत आणि महात्म्यांच्या बाबतीत अनेक दंतकथा तयार करण्यात आलेल्या आहेत. त्याचे कारण असे आहे की खालच्या जातीतील लोकांना काही अलौकिक गुण असू शकतात या गोष्टीवर उच्चवर्णीयांचा अजिबात विश्वास नाही. शूद्रातिशूद्रांना प्रतिभा नसते, बौद्धिक कुवत नसते असा त्यांचा दुराग्रह आहे. ब्राह्मणांव्यतिरिक्त कुठल्याही खालच्या जातीमध्ये अलौकिक शक्ती असत नाही, असा त्यांचा भ्रम आहे. म्हणून तेच अशा कथा निर्माण करून लोकात मुद्दामून प्रस्तुत करतात. आणि त्याला सर्वसामान्य माणूस बळी पडतो. शूद्रातिशूद्र जातीमधील प्रतिभावान आणि संत महात्म्यांच्या बाबतीत अशा बिनबुडाच्या कथा लोकांमध्ये प्रस्तुत करण्याचे कट-कारस्थान काही विशिष्ट जातीतील लोकांनी केलेले आहे. स्वतःचे श्रेष्ठत्व अभधित राहण्यासाठी खालच्या जातीमधील प्रतिभाशक्ती असलेल्या संतास ब्राम्हणाने अनुकंपा केल्याने त्यास दैवीशक्ती प्राप्त झाल्याचे अनेक ठिकाणी दाखले दिले गेले आहेत. त्यामुळे एखाद्या व्यक्तीच्या अंगात असे गुण असतील तर तो दैवी शक्तीचा प्रभाव आहे असे समजून काही बिनबुडाच्या कथा तयार करतात. अशा कट-कारस्थान...

कौस्तुभ मणि

कौस्तुभ मणि    कौस्तुभ मणि  को भगवान  विष्णु  धारण करते हैं। माना जाता है कि यह मणि  देवताओं  और  असुरों  द्वारा किये गए  समुद्र मंथन  के समय प्राप्त चौदह मूल्यवान वस्तुओं में से एक थी। यह बहुत ही कांतिमान थी और जहाँ भी यह मणि होती है, वहाँ किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं होती। रघुवंश में उल्लेख महाकवि कालिदास  ने ' रघुवंश ' [1]  में कहा है कि- त्रातेन तार्क्ष्यात् किल कालियेन मणिं विसृष्टं यमुनौकसा यः । वक्षःस्थल-व्यापिरुचं दधानः सकौस्तुभं ह्रेपयतीव कृष्णम् ।। उपर्युक्त  श्लोक  में कालिदास के समय में प्रचलित पुराकथा का निर्देश है। यहाँ ऐसा कहा गया है कि  कालिय नाग  को  श्रीकृष्ण  ने  गरुड़  के त्रास से मुक्त किया था। इस समय कालिय नाग ने अपने मस्तक से उतार कर श्रीकृष्ण को कौस्तुभ मणि दिया था। परन्तु कालिदास के समय में प्रचलित उपर्युक्त पुराकथा पुराणकार व्यास के हाथ में सर्वथा बदल दी गई।  श्रीमद्भागवत  में तो कहा गया है कि कौस्तुभ मणि की प्राप्ति तो समुद्र मंथन के समय हुई ...

उपचरि

उपचरि    उपचरि  वसुश्री नारायण के परम भक्त थे। उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग कर घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी तो  इंद्र घबरा गये कि कहीं इंद्रपद के लिए उन्होंने तपस्या न की हो। इंद्र ने समझा-बुझाकर उन्हें तपस्या से निवृत्त कर दिया तथा उन्हें स्फटिक से बना एक विमान उपहार स्वरूप प्रदान किया, जो कि आकाश में ही रहता था। उस विमान में रहने के कारण राजा वसु 'उपचरि' कहलाए। इंद्र ने उन्हें त्रिलोकदर्शी होने का वरदान दिया तथा सदैव विजयी रहने के लिए वैजंतीमाला और सुरक्षा के लिए एक बेंत भेंटस्वरूप दिया। एक बार कोलाहल पर्वत ने काम के वशीभूत होकर शुक्तिनदी को रोक लिया। राजा उपचरि ने अपने पाँव के प्रहार से उसके दो खंड कर दिये तथा नदी पूर्वगति से बहने लगी। पर्वत के समागम से शुक्तिनदी की युगल संतान हुई, जिन्हें उसने कृतज्ञ भाव से राजा को समर्पित कर दिया। राजा ने उसके पुत्र को सेनापति नियुक्त कर दिया तथा गिरिका नामक कन्या को पत्नी के रूप में ग्रहण किया। एक दिन वे पितरों की आज्ञा का पालन करने के निमित्त शिकार खेलने गये। वहाँ के मनोरम वातावरण में कामोन्मत्त राजा उपचरि का वीर्यपात हो ...

कृत्तिवासा

कृत्तिवासा    कृत्तिवासा,  शिव  का पर्याय है। अर्थात् कृत्ति अथवा गजचर्म को वस्त्र में धारण करने वाले।  स्कन्दपुराण  के [1]  में गजासुरवध तथा शिव के कृत्तिवासत्व की कथा दी हुई है। कथा " महिषासुर  का पुत्र गजासुर सर्वत्र अपने बल से  उन्मत्त होकर सभी  देवताओं  को उत्पीड़न कर रहा था। यह दुस्सह दानव जिस-जिस दिशा में जाता था, वहाँ पर तुरन्त ही सभी दिशाओं में भय छा जाता था।  ब्रह्मा  से वर पाकर वह तीनों लोकों को तृणवत् समझता था। काम से अभिभूत स्त्री-पुरुषों द्वारा यह अवध्य था। इस स्थिति में उस दैत्यपुगंव को आता हुआ देखकर त्रिशूलधारी शिव ने मानवों से अवध्य जानकर अपने त्रिशूल से उसका वध किया। त्रिशूल से आहत होकर और अपने छत्र के समान टँगा हुआ जानकर यह शिव की शरण में गया और बोला-हे त्रिशूलपाणि! हे देवताओं के स्वामी! हे पुरान्तक! आपके हाथों से मेरा वध श्रेयस्कर है। कुछ मैं कहना चाहता हूँ। मेरी कामना पूरी करें। हे मृत्युजंय! मैं आपके ऊपर स्थित होने के कारण धन्य हूँ। त्रिशूल के अग्र भाग पर स्थित होने के कारण मैं कृतकृत्य और अनुगृहीत हू...